गुरुवार, 23 सितंबर 2010

अयोध्या में सरकार सेवा


-राम आशीष गोस्वामी
‘1949 से 2010 आ गया। इस छ: दशक के कालखंड में रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मुद्दे को लेकर अयोध्या ने कई उतार-चढ़ाव देखें हैं। अयोध्या की सड़कें जहां कारसेवकों के खून से लाल हुर्इं, वहीं पूरे देश में सैकड़ों लोग साम्प्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ चुके हैं। रामरथ पर सवार होकर भाजपा सत्ता सुख भोग चुकी है, लेकिन अयोध्या विवाद वहीं का वहीं है। इस संवेदनशील मुद्दे को हल करने के लिए कभी सार्थक पहल नहीं की गई, क्योंकि हमेशा राजनीति इसके बीच दीवार बनकर खड़ी होती रही है। अब जब 24 सितंबर को उच्च न्यायालय मंदिर मुद्दे पर फैसला सुनाने जा रहा है तो स्वाभाविक है कि पूरे देशवासियों की नजर जहां आने वाले फैसले पर टिकी है, वहीं अयोध्या पूरी तरह से शांत दिखाई पड़ रही है। किन्तु यह भी सच है कि सरयू के ठहरे जल में कब ज्वार-भाटा आ जाए यह कहना मुश्किल है। शायद इसीलिए सरकार पूरी अयोध्या को छावनी बनाकर सुरक्षा व्यवस्था सुदृढ़ करने में लगी है।’

अयोध्या में तपिश बढ़ती है तो पूरे देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच एक विभाजन रेखा खींचने की कोशिश की जाती है। इस बार अयोध्या में किसी दल विशेष का आयोजन नहीं है। बल्कि 60 दशक बाद न्यायालय का फैसला आने जा रहा है तब भी राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों ने साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। महीनों पहले से जिस तरह दोनों पक्षों द्वारा एसएमएस करके अपने लोगों को सावधान करने का सिलसिला शुरू हुआ वह काफी चिंताजनक कहा जाएगा। चूंकि अयोध्या प्रकरण पूरी तरह आस्था से जुड़ा सवाल है जिससे आम जनमानस पर इसका गहरा प्रभाव होना स्वाभाविक भी है।
22 दिसंबर 1949 की रात में विवादित स्थल पर राम,लख्मण आदि की मूर्तियों को रखने और 23 दिसंबर को प्रकटीकरण के बाद उठे विवाद को देखते हुए प्रशासन ने ताला बंद कर दिया था, लेकिन मंदिर के पुजारी को पूजा आदि करने की छूट थी। विवादित स्थल से मूर्ति न हटाए जाने से दोनों पक्षों ने न्यायालय की शरण ली और अपने-अपने स्वामित्व का दावा किया। छ: दशक से चल रहे मुकदमें के फैसले की अब घड़ी आ गई है लेकिन यह फैसला मंदिर-मस्जिद विवाद को खत्म कर देगा ऐसा संभव नहीं दिखाई पड़ रहा है क्योंकि फैसला तो एक ही के पक्ष में रहेगा। ऐसे में दूसरा पक्ष सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा जरूर खटखटाएगा, फिर भी खुशी होगी कि इस संवेदनशील विवाद को हल करने में एक सार्थक कदम तो उठा।
24 सितंबर की तारीख को लेकर सरकारों के सिंहासन डोल रहे हैं। पर आम आदमी अब धर्म राजनीति की साम्प्रदायिक आंच से दूर रहकर अमन चैन की जिंदगी बसर करना चाहता है। खास करके उत्तर भारत के गांवों, कस्बों और शहरों में मंदिर मुद्दा अत्यंत संवेदनशील रहा है, जिससे एक तरफ विहिप के कार्यक्रमों से तो दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के आयोजनों से लोगों की नब्ज घटती-बढ़ती रही है। इसके चलते समाज में तनाव बढ़ता रहा और मेरठ, मुरादाबाद, अलीगढ़, गोण्डा, बहराइच सहित अनेक जिलों के दंगों की धमक दिल्ली तक पहुंचती रही, जिससे राजनीतिक पैंतरेबाजी भी उसी तरह होती रही। परंतु 1992 में विवादित ढांचा ध्वस्त होने के बाद जो स्थितियां बनीं उससे आम आदमी काफी आहत हुआ, वहीं राजनीतिज्ञों का असली चेहरा भी बेनकाब हो गया। रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे को लेकर सामाजिक ढांचा को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास तो खूब हुआ लेकिन विघटनकारी तत्वों को उसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि हमारा सामाजिक बंधन इतना मजबूत है कि आम जनमानस को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। हिंदू यदि ईद और मोहर्रम जैसे त्योहारों में शामिल होता है तो मुस्लिम भाई दुर्गा पूजा और दशहरा जैसे त्योहारों में कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं। यही कारण था कि अयोध्या विवाद आस्था से जुड़ा होने के बावजूद अधिकतर लोगों ने उसे नकार दिया। अगर ऐसा न होता तो कल्याण सरकार में ढांचा ध्वस्त होने के बाद भाजपा को खण्डित जनादेश न मिला होता, बल्कि उसे पूर्ण बहुमत मिली होती।

अयोध्या विवाद अनंतकाल तक टाला नहीं नहीं जा सकता था और ऐसा होना भी नहीं चाहिए था। 24 सितंबर को अदालत का फैसला आना है तो एक बार फिर मंदिर-मस्जिद का जिन्न बोतल से बाहर आने का प्रयास कर रहा है। जिससे आम जनमानस से ज्यादा सरकारें परेशान हैं। वह इसलिए नहीं कि आम आदमी से उन्हें कोई मोहब्बत है, बल्कि इसलिए कि आने वाले दिनों में चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में कोई भी पार्टी जोखिम उठाना नहीं जाहती है। आने वाले फैसले की जितनी चर्चा बाहर है उतनी अयोध्या में नहीं है। वहां पूर्व की भांति शांति है और लोग अपने दैनिक कार्यों में लगे हैं। किंतु आम आदमी पर प्रशासन की तैयारी का विपरीत असर जरूर पड़ रहा है। स्कूल कालेज बंद कर उसमें सुरक्षा बलों को ठहराया गया है। जिससे शिक्षा के मंदिर में संगीनों की चमक और बूंटों की धमक सुनाई पड़ रही है।

अयोध्या के पड़ोसी जिलों गोण्डा, बलरामपुर, बहराइच, श्रीवास्ती, सुल्तानपुर, बस्ती, बाराबंकी आदि में स्थिति से निपटने के लिए अस्थाई जेलों का निर्माण किया गया है। साथ ही व्यापक सुरक्षा प्रबंध भी किए गए हैं। प्रशासन दोनों समुदायों के प्रमुख लोगों की सूचियां बनाकर उन पर बराबर नजर रख रहा है। अयोध्या-फैजाबाद के अधिकतर होटल और धर्मशालाओं को प्रशासन ने अधिग्रहित कर लिया है। जिससे बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को ठहरने में काफी कठिनाइयां हो रही है। जिसका सीधा असर वहां के दुकानदारों पर पड़ रहा है क्योंकि अयोध्या में जितने पर्यटक आएंगे उतना ही लाभ दुकानदारों को होता है। सबसे ज्यादा असर छोटे दुकानदारों के ऊपर पड़ रहा है। दिनभर कमाने के बाद शाम को उनके घरों का चूल्हा जलता है। वह चाहे हिंदू हो या मुसलमान। अयोध्या में सरयू के घाट पूरी तरह सूने पड़े हैं। जबकि इस महीने में पिंडदान करने वालों की लाइनें लगी रहती थी, किंतु इस बार पूरी तरह से घाट सूने हैं। जिसके कारण कर्मकाण्डी पंडितों का व्यवसाय भी काफी धीमा पड़ गया है।

अदालती फैसला के बाद किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए प्रशासन जहां मुस्तैद है, वहीं सभी राजनीतिक दल व साधु-संतों तथा मुस्लिम धर्म गुरुओं द्वारा जिस तरह से शांति की अपील की जा रही वही समय की मांग है लेकिन इन अपीलों पर लोग कितना अमल करेंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिर भी फैसला आने के बाद सभी राजनीतिक लोगों और धर्मगुरुओं को भी समाज को एक सूत्र में बांधे रखने का प्रयास जारी रखना होगा। अन्यथा विघटनकारी तत्वों को अपना मकसद पूरा करने का एक मौका और मिल जाएगा।

अदालत का निर्णय कुछ भी हो, लेकिन जिस तरह विवादित स्थल का ताला खोला जाना, शिलान्यास कराना, दर्शन-पूजन की अनुमति देना और विवादित ढांचा ध्वस्त होने की तिथि मंदिर-मस्जिद आंदोलन के इतिहास में अंकित है उसी तरह से 24 सितंबर की तारीख भी मात्र कुछ घंटों बाद उसी इतिहास में अपना भी स्थान बना लेगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें