गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

चिकोटी

-घोषणा पत्र जारी करने के मामले में
-भारतीय जनता पार्टी
-अन्य दलों से पिछडी
-इसे लेकर
-देर से पक रही
-मसौदे की खिचड़ी
-को जो लोग
-चार अप्रैल के अखबार में
-भाजपा के लिए असहज
-मान रहे हैं
-वे नादान हैं
-धीरु भाई की तरह
-इस सच से अन्जान हैं
-कि अपना अध्यक्ष
-विफलता को सफलता में
-बदलने वाला
-देश का सर्वश्रेष्ठ
-फास्टर है
-बराबर-बराबर की पंचायत में
-पूरी रोटी खाने का
-मास्टर है।

बुधवार, 27 नवंबर 2013

हस्तिनापुर की गद्दी के लिए यूपी में छिड़ा सियासी संग्राम


हस्तिनापुर की गद्दी के लिए यूपी में छिड़ा

’’ सियासी संग्राम’’

रैलियों की जंग में छोड़ी जा रहीं शब्दों की मिसाइलें

राम आशीष गोस्वामी

2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव की घोषणा भले ही अभी नहीं हुई है लेकिन चुनावी महाभारत को जीतने के लिए सभी राजनीतिक दल अपनी जमीने तैयार करने में जुट गए हैं। सत्ता के लिए जो संघर्ष शुरु हुआ है उसमें कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है, बल्कि रैलियों के माध्यम से सब अपनी-अपनी जमीनी ताकत दिखाने में जुटे हैं। शब्दों की ऐसी मिसाइलें दागी जा रही हैं जो शायद एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उचित नहीं कहे जा सकते हैं।   

प्रदेश में चल रही सर्द हवाओं से मौसम का पारा भले ही नीचे गिरता जा रहा हो लेकिन सियासी पारा लगातार चढ़ता जा रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में भारी सफलता पाकर सत्ता में आने वाली समाजवादी पार्टी के मुखिया एक बार फिर पुराना कार्ड खेलना चाहते हैं। युवाओं को लुभाने में जहां जुटे हैं वहीं मुजफ्फर नगर दंगे के बाद से नाराज मुसलमानों को भी साधने में जुट गए हैं। इसी उद्देश्य को लेकर पिछले दिनों बरेली में एक बड़ी रैली करके और मंच पर इत्तेहादे मिल्लत कौंसिल के अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा खां सहित अन्य लोगों को जिस तरह से सम्मान दिया गया उससे समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के प्रति अपना नजरिया स्पष्ट कर दिया। इसके अलावा इस रैली के माध्यम से संगठन को जहां सक्रिय किया वहीं आम जनमानस को भी यह बताने का प्रयास किया कि नरेन्द्र मोदी की रैली में ही नहीं बल्कि सपा की रैली में भी किसी से कम भीड़ नहीं होती है। बरेली में रैली करने के पीछे और भी मुख्य कारण थे क्योंकि इस रुहेलखण्ड क्षेत्र से पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा सफलता मिली थी। चूंकि इस क्षेत्र में मुस्लिम और पिछड़ी जातियों की संख्या ज्यादा है ऐसे में सपा इस बार खास करके मुसलमानों पर कांग्रेस की अपेक्षा अपनी पकड़ ज्यादा मजबूत रखना चाहती है। इसी कारण से बरेली में शक्ति प्रदर्शन करके रुहेलखण्ड इलाके में सियासी पारा चढ़ा दिया। मुसलमानों को मनाने के लिए सपा ने एक तीर और भी चलाया है। अब मौलाना तौकीर रजा खां को अगुवा बनाकर सद्भावना सम्मेलन के बहाने एक महाअभियान चलाने की योजना बनाई है जो अपनी तकरीर से मुसलमानों को समाजवादी पार्टी के साथ जोड़ने का काम करेंगे।

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी पिछले कई वर्षों से गुटबाजी की शिकार रही है जिसके चलते ही पिछले विधानसभा चुनाव में उसकी बड़ी दुर्गति हुई थी। वह गुटबाजी पूरी तरह से अभी तक खत्म नहीं हो सकी है। लेकिन प्रभारी के रूप में अमितशाह के आने के बाद से ऊपरी सतह पर कम दिखाई पड़ रही है। इसके अलावा नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित होने के बाद से जो उत्साह दिखाई पड़ा उससे सुस्त पड़े संगठन में सक्रियता आ गई। मोदी की रैलियों में भारी भीड़ देखकर भाजपाई अभी से गद्गद् हैं और उसी का नतीजा है कि कई बड़े नेता अपने बेटों के लिए टिकट के जुगाड़ में लगे हैं। दूसरी तरफ समय की नजाकत भांपकर दूसरे दलों के कुछ वर्तमान सांसद भी भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की जुगत बना रहे हैं। मोदी अपनी रैलियों में अयोध्या या मथुरा का मुद्दा उठाकर अपने विपक्षियों को कोई मौका नहीं देना चाहते हैं और उसी का परिणाम था कि अयोध्या के निकट बहराइच की रैली में राम मंदिर मामले पर तो आगरा रैली में मथुरा के मामले पर कुछ नहीं कहा जबकि लोग यह सोंच रहे थे कि इस मुद्दे पर जरूर बोलेंगे। भाजपा इससे बचने का प्रयास कर रही है लेकिन मुस्लिम वोटों के लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में जो बयानबाजी चल रही है उससे दूसरे वर्ग का लाभ भाजपा को स्वतः ही हो रहा है।

केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद भी प्रदेश में कांग्रेस पार्टी का संगठन पूरी तरह से सुस्त पड़ा था वर्षों से कहीं कोई धरना न प्रदर्शन हुआ। शायद केंद्र में सपा के समर्थन की कीमत चुकाई जा रही थी लेकिन अब जब चुनाव सामने दिखाई देने लगा और सपा कांग्रेस पर पूरी तरह से हमलावर हो रही है तब कांग्रेस की भी नींद खुली और उसने भी राजधानी में उसी दिन शक्ति प्रदर्शन किया जब बरेली में मुलायम और आगरा में मोदी गरज रहे थे। वर्षों बाद कांग्रेसियों के प्रदर्शन से लखनऊ की व्यवस्था चरमरा गई जिससे पुलिस को लाठियां तक भांजनी पड़ी। उसी दिन गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर राष्ट्रीय लोकदल ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश की लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दबकर रह गई।

प्रदेश में रैलियों की जंग अभी जारी रहेगी क्योंकि कोई भी दल यह नहीं चाहता कि गांव की गलियों में जो राजनीतिक चहलकदमी शुरू हुई है वह चुनाव से पहले धीमी पड़े। आज शब्दों की मिसाइलें जिस तरह से एक दूसरे पर दागी जा रहीं हैं उससे तो यही कहा जा सकता है कि ’’आगाज तो हमने देख लिया अंजाम न जाने क्या होगा।’’



गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

गांवों में बनने वाले खेल मैदान में ‘खेल’

राम आशीष गोस्वामी
एक तरफ भारत सरकार कॉमनवेल्थ जैसे राष्टÑमंडल खेलों का आयोजन कर पूरी दुनिया में खेलों क ो बढ़ावा देने का संदेश देती है वहीं उत्तर प्रदेश के अधिकारी दो वर्ष पूर्व जारी हुए शासनादेश को रद्दी की टोकरी में डालकर कागजों में गांवों की युवा प्रतिभा को उभार कर सरकार को कागजी शेर सौंप रहे हैं। पंचायत युवा क्रीडा और खेल अभियान (पायका) के अंतर्गत प्रदेश के 82 विकास खंडों में 5203 पंचायतों का चयन किया गया था जिनमें खेल मैदान (मिनी स्टेडियम) बनाए जाने थे, और एक-एक लाख रुपये की प्रथम किस्त भी सरकार द्वारा जारी कर दी गई थी। लेकिन क्षेत्र पंचायत व ग्राम पंचायत स्तर पर खुलने वाला पायका निधि का खाता ही नहीं खोला जा सका जिससे यह पैसा अधिकतर जिलों पर ही पड़ा हुआ है। और सरकार की अति महत्वाकांक्षी योजना धरासाई होती दिखाई पड़ रही है। सरकार ने गांवों में युवा खिलाड़ियों की प्रतिभा को देश-प्रदेश स्तर पर उभारने तथा भारतीय खेलों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से वर्ष 2017 तक देश के सभी ग्राम पंचायतों में खेल मैदान (मिनी स्टेडियम) की स्थापना और क्रीडा श्री की नियुक्ति करने की योजना दो वर्ष पूर्व तैयार की थी। जिसे मूर्तरूप देने के लिए 27 मई 2008 को शासनादेश जारी करके रास्ता साफ कर दिया गया था। युवा क्रीड़ा और खेल अभियान (पायका) के अंतर्गत इस योजना के कार्यान्वयन की पूर्ण जिम्मेदारी सभी जिलों में युवा कल्याण अधिकारियों को सौंपी गई थी। किंतु एक वर्ष बीतने के बाद भी किसी अधिकारी के कान पर जब जूं तक नहीं रेंगा तब डॉ. एस एस सिंह महानिदेशक प्रांतीय रक्षक दल, विकास दल एवं युवा कल्याण उप्र लखनऊ ने प्रदेश के समस्त जिलाधिकारियों को 23 मई 2009 को पत्र देकर 3 जून 2009 तक खाता खोले जाने की सूचना के साथ ही कार्य योजना की सी डी मांगी थी। लेकिन इस पत्र की आवाज भी नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह दब कर रह गई।
सूत्रों का कहना है कि 27 मार्च 2009 को जारी शासनादेश संख्या 982/ पचास-यु.क.-2009-178(विविध) 07 टी सी के अंतर्गत स्पष्ट किया गया था, जिसके आधार पर राजन शुक्ला सचिव खेल कूद एवं युवा कल्याण विभाग उत्तर प्रदेश शासन ने महानिदेशक प्रांतीय रक्षक दल एवं विकास दल व युवा कल्याण उत्तर प्रदेश को लिखा था कि ग्राम पंचायत स्तर पर क्रियान्वयन एजेंसी में ग्राम प्रधान, क्षेत्रीय युवा कल्याण अधिकारी, क्रीडा श्री , युवक / महिला मंगलदल के अध्यक्ष और प्राइमरी / जूनियर हाई स्कूल के हेड मास्टर होंगे। इसी तरह क्षेत्र पंचायत स्तर पर क्रियान्वयन एजेंसी में ब्लाक प्रमुख अथवा खेल में रुचि रखने वाला क्षेत्र पंचायत सदस्य जिसे ब्लाक प्रमुख ने नामित किया हो। इसके अलावा जिला युुवा कल्याण अधिकारी, सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी, विकास खंड अंतर्गत इण्टर कालेज के प्रधानाचार्य, क्रीडा श्री तथा उस क्षेत्र का एक निवासी जो कम से कम जिला स्तरीय खिलाड़ी रहा हो। साथ ही दोनों समितियों में एक-एक महिला सदस्य भी रहेंगी।
खेलों के बारे में भी कहा गया था कि एथलेटिक्स, तैराकी, जिमनास्टिक, बैडमिंटन,टेविल टेनिस, साइकिलिंग,आर्चरी, ब्रूशू, ताइक्वाण्डो, भारोत्तोलन, बॉसिंग, जूड़ो, कु श्ती, कबड्डी, खो-खो, हॉकी, फुटबाल, वालीवाल, बास्केटबाल, एवं हैण्डबाल के खेल आयोजित कराए जाएंगे। जिसमें से 10 खेलों का चयन जिला स्तर पर , पांच खेलों का चयन ब्लाक स्तर पर और ग्राम पंचायत स्तर पर एथलेटिक्स की अनिवार्यता के साथ किन्ही चार खेलों के चयन हेतु जिला स्तरीय कार्यकारी समिति को अधिकृत किया गया था। क्रीड़ा श्री की नियुक्ति के लिए भी स्पष्ट दिशा निर्देश दिया गया था। इसके अलावा ग्राम स्तर पर ‘ग्राम पायका निधि’ और ब्लाक स्तर पर ‘क्षेत्र पंचायत पायका निधि’ के नाम से खाता खोला जाना और जमीन के चिन्हीकरण को भी कहा गया था। लेकिन वाह रे व्यवस्था दो वर्ष से ऊपर का समय बीत गया और प्रथम चरण 2008-09 में चयनित ग्राम पंचायतों में न तो खाता खुल सका और न ही जमीनों की व्यवस्था ही की जा सकी। क्रीड़ा श्री की नियुक्ति भी खटाई में पड़ गई। जिसके कारण मिनी स्टेडियम का निर्माण अधर में ही लटका हुआ है। और प्रथम किस्त का पैसा जिलों पर पड़ा हुआ है। फिर 2009-10 में चयनित ग्राम पंचायतों की क्या व्यवस्था होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। कुछ विशेष सूत्रों का मानना है कि मिनी स्टेडियम निर्माण में प्रधानों को कोई लाभ नहीं होने वाला था इसलिए उन्होंने इसके निर्माण में कोई दिलचस्पी नहीं ली वहीं जिम्मेदार अधिकारी भी सिर्फ कागजी घोंड़ा दौड़ाते रहे जबकि भौतिक धरातल पर कार्य की प्रगति शून्य ही रही। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि इसी तरह से गांवों क ी युवा प्रतिभा को निखार कर देश-प्रदेश स्तर पर उभारा जाएगा और सरकार की अतिमहत्वाकांक्षी योजना को कार्यान्वित किया जाएगा।

रावण का ज्ञान

राम आशीष गोस्वामी
अब पता नहीं आप लोगों को विश्वास हो या नहीं, लेकिन बात बिल्कुल एक सौ एक प्रतिशत सही है। दशहरा के दिन रावण दहन देख कर रात में जब मैं वापस घर जा रहा था तो चौराहे पर ही महाराजाधिराज रावण को जीवित खड़े देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गया, उस समय तो मेरे होश ही उड़े जा रहे थे कि अभी-अभी मेरी आंखों के सामने ही इनका दहन हुआ है, फिर यह यहां जिन्दा कैसे खड़े हैं। अपने दिल को मजबूत करते हुए मैने सोचा कि शायद यह मेरा भ्रम हो इसलिए कई बार आंखें खोली और बंद की लेकिन तब भी वह अविचल खड़े मुस्करा रहे थे। शायद वह मेरी आशंका को समझा गए थे। इसलिए लपक कर उन्होंने मेरी कुशलता पूछी फिर तो विश्वास न करने का कोई सवाल ही नहीं रह गया था। अब आप से क्या बताऊं, अपने ही दहन को देखकर लौटे रावण के चेहरे पर जो रौनक और खुशी दिखाई पड़ रही थी उसे देखकर मैं हैरान और दंग रह गया। ऐसी खुशी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के चेहरे पर कॉमनवेल्थ गेम्स को सकुशल निपटाने के बाद भी नहीं दिखाई पड़ी थी। खैर....डरते हुए मैने उनसे पूछ ही लिया कि हे राक्षसराज कृपा करके मेरे मन की आशंका को खत्म करें कि अपना ही दहन देखने के बाद भी आपके चेहरे पर इतनी खुशी क्यों है? क्या आपको अपनी पराजय का कोई दुख या मलाल नहीं है। मेरा इतना कहना था कि वह ठठाहर हंस पड़े और बोले अरे मूरख अज्ञानी ‘बाबा’ यह कलियुग है, यहां जो कुछ आंखों के सामने देखा जाता है वह सच नहीं होता है। बल्कि सच वह होता है जो पर्दे के पीछे होता है और पर्दे के पीछे जो होता है वह मेरे जैसा ज्ञानी पंडित ही देख सकता है। अभी तू बाबा नहीं इस मामले में बालक है। खैर मै तेरी सरलता पर खूश हूं ,इसलिए तुझे परम सत्य से अवगत कराता हूं। इतना तो तू जानता ही है कि पूरे वर्ष में सिर्फ एक दिन यानि दशहरे वाले दिन ही राम रावण पर विजय पाते हैं और उसी खुशी में रावण दहन भी होता है। यानि वर्ष में 364 दिन मेरी विजय होती है। अब चूंकि राम के विजय का एक दिन है इसलिए जश्न और खुशियां मनाई जाती है। अब सोंचो 364 दिन जो मेरे हैं, सो मेरे अनुयायी कहां तक जश्न मनाएं। अब रही बात मेरी खुशियों की तो जान लो कि सिर्फ आज का दिन राम का था और कल से फिर यानि रावण का दिन होगा। अब तू ही बता कि मैं दुखी होऊं या खुशियां मनाऊं। इतना सुनते ही मेरे होश उड़ने लगे। मेरा रक्तचाप घटने-बढ़ने लगा जिसे देखकर ज्ञानी पंडित रावण ने हंसते हुए मुझे धीरज बंधाया और कहना शुरू किया कि रे मूरख कलम घसीटू बाबा क्या अपने इस कलम घसीटी के दो दशक में दुनियादारी नहीं देखी जो व्यर्थ की चिंता करता है। अरे मैने सिर्फ एक सीता का अपहरण किया था क्योंकि राम के कहने पर उसके छोटे भाई लक्ष्मण ने मेरी बहन सूर्पणखा के नाक, कान काट डाले थे। तब भी राम ने मुझे मार डाला था। मगर तू देख आज कितनी सीताओं का अपहरण, बलात्कार और हत्या तक कर दी जाती है लेकिन क्या मजाल राम उन्हें मार कर विजय प्राप्त कर लें । इसीलिए तो कहता हूं कि राम की यह विजय तात्कालिक थी और मेरी विजय सर्वकालीन है। मैं तो तब भी अजेय था और आज भी हूं और आगे भी अजेय ही रहूंगा। अब तू भी इस गुप्त ज्ञान को जान गया है इसलिए तू भी ज्ञानी हो गया है अत: लंका में रहने की अनुमति देता हूं । इस मुलाकात के बाद से रावण की बात मुझे सच लगने लगी है अब आप का क्या ख्याल है जरूर बताना।

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

घूंघट की ओट से कब तक चलेंगी पंचायतें!


प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के विभिन्न पदों पर 760577 सदस्यों का चुनाव होना है जिसमें ढाई लाख से अधिक महिलाएं इसमें भाग लेंगी। ये अपना भाग्य आजमायेंगी। (न्यायालय के स्थगनादेश से दो जिलों एटाऔर कांशीराम नगर में चुनाव नहीं कराए जा रहे हैं।) लेकिन पूरे प्रदेश में दस प्रतिशत से अधिक महिलाओं के हाथों में चुनाव प्रचार की बागडोर भी नहीं है। इनके चुनाव प्रचार का भी जिम्मा इनके पिता, पति, भाई, पुत्र या दूसरे परिजनों ने ले रखा है। कहां वोट मांगने जाना है, इसका भी निर्धारण इनके परिवार के पुरुष करते हैं।

आगरा के वार्ड संख्या 17 से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव श्रीमती निर्मला देवी लड़ रही हैं, लेकिन प्रतिष्ठा इनके पति राजवीर सिंह प्रधान की लगी हुई है। क्योंकि पूरा इलाका इनके पति को ही जानता है। निर्मला देवी की पहचान अपने पति से है। फतेहपुर सीकरी से जिला पंचायत सदस्य का ही चुनाव श्रीमती पिस्ता देवी भी लड़ रही हैं और यहां भी चुनावी प्रतिष्ठा इनके पति चौधरी घन्सू सिंह सरपंच की लगी है। यह एक छोटी सी नजीर है, जो पूरे प्रदेश में हर जगह लगभग ऐसा ही देखने को मिल रहा है। पंचायत चुनाव में महिला प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार की बागडोर कहीं पति, तो कहीं ससुर, भाई या देवर के हाथों में है। मीरा ने ‘घूंघट के पट खोल, तुझे पिया मिलेंगे’ गीत के माध्यम से सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने का आह्वान किया था, लेकिन दुर्भाग्य है कि आज जब संविधान ने महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे रखा है। उनके लिए पंचायत चुनाव में 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं, तब भी घूंघट की ओट से ही पंचायतें चलाई जा रही हैं। बराबरी का संदेश इन महिलाओं तक नहीं पहुंचा है। वे आज भी सामंती व्यवस्था के तहत जी रही हैं या फिर जीने को मजबूर की जा रही हैं। ऐसा भी नहीं है कि सभी महिलाएं घूंघट में ही रहकर पंचायतों को संभाल रही हैं या वर्तमान चुनाव में प्रचार के लिए निकलती ही न हों। अपवाद हर जगह मौजूद होते हैं। इस मामले में कुछ महिला प्रत्याशी अपवाद हैं। आगरा के ही वार्ड नंबर तीन से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ रही श्रीमती ममता त्यागी ने चुनाव प्रचार की बागडोर संभाल रखी है। इतना ही नहीं, वे दूरदराज के गांवों में भी पहुंच रही हैं।

प्रदेश में ही भारत-नेपाल सीमा पर बसा फकीरपुरी गांव अनुसूचित जनजाति बाहुल्य (थारू जनजाति) है जहां ये लोग आदिवासी संस्कृति में खानाबदोश जैसी जिंदगी जी रहे हैं। उन्हीं लोगों के बीच से माधुरी ने घर की चौखट से बाहर कदम रखा और स्रातक तक शिक्षा ग्रहण कर 2005 के चुनाव में प्रधानी का चुनाव लड़कर प्रधान बन गईं। कम उम्र की एक लड़की जब प्रधान बनी, तो सपने में भी लोगों ने नहीं सोचा था कि यह भी कुछ कर पाएगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि आज फकीरपुरी गांव की एक भी लड़की ऐसी नहीं है जिसका नाम प्राथमिक विद्यालय में न दर्ज हो। इतना ही नहीं, गांव की महिलाओं को वह खुद पढ़ाती है, ब्लाक तथा एनजीओ के माध्यम से गांव का कायाकल्प ही कर दिया है। इससे वहां के लोगों का रहन-सहन ही बदल गया है। अब वे कई तरह की बुराइयों से दूर हैं।

ऐसा ही हाल जनपद बहराइच के ग्राम जैतापुर का है। यहां से एक वेश्या ने पिछली बार चुनाव जीता और गांव के विकास के साथ ही वेश्याओं को पुस्तैनी धंधे से अलग कर उन्हें दूसरे धंधों से जोड़ा। उन्हें सम्मानजनक ढंग से जीना सिखाया। हालांकि ऐसी मिसालें बहुत कम हैं, वरना 99 प्रतिशत महिला पंचायत प्रतिनिधियों के कामकाज उनके ससुर , पति, देवर, भाई या पुत्र ही देखते हैं। यहां तक कि ब्लाकों में होने वाली जरूरी बैठकों में भी महिलाओं के प्रतिनिधि के रूप में उनके घर के पुरुष ही उपस्थित होते हैं। पंचायतों को मुट्ठी में जकड़े रहने वालों में पीढ़ी दर पीढ़ी राजनीतिक रुतबा बनाए रखने की कोशिश में जुटे लोग ही नहीं हैं बल्कि कानून तथा संविधान की मंशा-मर्यादा से वाकिफ लोग भी हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि पंचायतों में 33 प्रतिशत महिलाओं के आरक्षण का आखिर क्या महत्व है? वहीं एक यक्ष प्रश्न यह भी गूंज रहा है कि घूंघट की ओट से कब तक पंचायतें चलेंगी। जिसका उत्तर खोज पाना शायद आसान नहीं है।
राम आशीष गोस्वामी

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

एक नजर : अयोध्या के छ: दशक की प्रमुख घटनाओं पर

आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में 23 अक्टूबर 1949 को अयोध्या में विवादित रामजन्म भूमि मंदिर में भगवान राम और लक्ष्मण आदि की मूर्ति के प्रकटीकरण के बाद मुसमानों ने काफी विरोध किया लेकिन आस्था के आगे पंडित नेहरू उन मूर्तियों को नहीं हटवा पाए जिससे दोनों पक्षों ने न्यायालय की शरण ली।
पंडित नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने पर अयोध्या में कोई बड़ी घटना नहीं हुई।

श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल के उत्तरार्द्ध में विश्व हिन्दू परिषद ने मंदिर मुद्दे को लेकर अपनी सक्रियता बढ़ाई और राम जन्म भूमि यज्ञ समिति का गठन किया तथा जनकपुर से राम जानकी रथ यात्रा निकाली जिसके अयोध्या पहुंचने पर उसका भव्य स्वागत किया गया। सात अक्टूबर 1984 को अयोध्या से लखनऊ तक पद यात्रा निकाल कर जनजागरण का काम शुरू किया गया लेकिन श्रीमती गांधी की हत्या के बाद कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर एक बार फिर विहिप की सक्रियता बढ़ी और 21 अक्टूबर 1985 को पूरे प्रदेश में रक्षा राम जानकी रथ यात्रा निकाली जिसे व्यापक जन सर्मथन मिला। धर्माचार्यों ने धर्मसंसद का आयोजन कर निर्णय किया कि 8 मार्च 1986 को सभी रथ अयोध्या पहुंचेंगे तथा उसी दिन रामभक्त रामजन्म भूमि को मुक्त कराएंगे। किन्तु इससे पहले ही 25 जनवरी 1986 को एक स्थानीय अधिवक्ता उमेश पांडेय ने अदालत में याचिका दायर कर ताला खोलने की मांग की थी।

जिला जज कृष्ण मोहन पांडेय ने एक फरवरी 1986 को ताला खोलने की अनुमति दे दी। उसी दिन शाम 5.20 बजे भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच ताला खोल दिया गया। 37 वर्षों बाद ताला खुलने की खबर चारों तरफ दावानल की भांति फैल गई। एक सप्ताह तक अयोध्या में खुशी से लोग दीवाली मनाते रहे। 1989 में विहिप ने पूरे देश के तीन लाख गांवों में शिलापूजन कार्यक्रम कर 9 नवंबर 1989 को मंदिर स्थल पर शिलान्यास कार्यक्रम की घोषणा की। देश भर से रामभक्त अयोध्या पहुंचे। रामभक्तों और सुरक्षाबलों में टकराव से पहले ही सरकार ने शिलान्यास की अनुमति दी। इलाहाबाद कुंभ मेले में संतो की धर्मसंसद में निर्णय हुआ कि 30 अक्टूबर1990 को मंदिर निर्माण के लिए कारसेवा की जाएगी इससे पूर्व जनसर्मथन हेतु दीवाली के अवसर पर अयोध्या से राम दीप यात्रा निकाली जाए और उसी दीप से घर-घर में दीपावली के दिन लोग दीप जलाएं।
सितंबर 1990 में ही तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकाली। पूरे देश में राम लहर पैदा करने की कोशिश की। बिहार में आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद केंद्र में भाजपा सर्मथन पर टिकी वी पी सिंह की सरकार गिर गई।

1990 में पहली बार अयोध्या में परिक्रमा पर मुलायम सरकार ने रोक लगाई। सुरक्षा व्यवस्था को धता बताकर हजारों कारसेवक अयोध्या पहुंचे। 30 अक्टूबर को कारसेवकों का जत्था रामजन्म भूमि की तरफ रवाना। विवादित परिसर के पास सुरक्षाबलों की गोलियों के कई कारसेवक शिकार हुए। पूरी अयोध्या में अघोषित कर्फ्यू के दौरान 2 नवंबर को फिर कारसेवकों का दल रामजन्म भूमि की तरफ बढ़ा लेकिन पहले से तैयार सुरक्षाबलों ने किया बल प्रयोग। गोलीबारी में कई कारसेवकों की मौत, सैकड़ों घायल। 4 अप्रैल 1991 को दिल्ली में वोट क्लब पर विहिप की विशाल जनसभा उसी दिन उप्र सरकार के मुखिया मुलायम सिंह का इस्तीफा। उप्र विधानसभा चुनाव में भाजपा को पहली बार मिली सफलता।

1992 में विहिप ने फिर शुरू किया पूरे प्रदेश में श्रीराम चरण पादुका कार्यक्रम के तहत जनजागरण। 6 दिसंबर 1992 को पुन: कारसेवा की घोषणा हजारों कारसेवक अयोध्या पहुंचे। निर्धारित समय पर कारसेवा शुरू और देखते ही देखते विवादित ढांचा ध्वस्त। उसी दिन शाम को मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने दिया त्यागपत्र। उप्र में लगा राष्टÑपति शासन। भाजपा शासित अन्य प्रदेशों की सरकारें भी बर्खास्त। इंद्र कुमार गुजराल और देवगौड़ा के शासनकाल में कोई विशेष कार्यक्रम नहीं हुए हां चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने पर मंदिर मुद्दा सुलझाने का कुछ प्रयास जरूर पर सफलता नहीं मिली। केंद्र में जब पहली बार भाजपा गठबंधन की सरकर बनी तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई से विहिप ने मंदिर की भूमि रामजन्म भूमि न्यास को सौंपने को कहा लेकिन वाजपेई का इंकार। 2010 हरिद्वार में आयोजित कुंभ मेला में एक बार फिर संतों की बैठक। मंदिर निर्माण के लिए जनसर्मथन जुटाने हेतु पूरे देश में 16 अगस्त से 15 नवंबर तक गांव-गांव हनुमत शक्ति जागरण कार्यक्रम के तहत हनुमान चालीसा क ा पाठ गांवों में चल रहा है। इसके बाद जगह-जगह यज्ञ का कार्यक्रम करने की योजना विहिप बना रही है।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

अयोध्या में सरकार सेवा


-राम आशीष गोस्वामी
‘1949 से 2010 आ गया। इस छ: दशक के कालखंड में रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मुद्दे को लेकर अयोध्या ने कई उतार-चढ़ाव देखें हैं। अयोध्या की सड़कें जहां कारसेवकों के खून से लाल हुर्इं, वहीं पूरे देश में सैकड़ों लोग साम्प्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ चुके हैं। रामरथ पर सवार होकर भाजपा सत्ता सुख भोग चुकी है, लेकिन अयोध्या विवाद वहीं का वहीं है। इस संवेदनशील मुद्दे को हल करने के लिए कभी सार्थक पहल नहीं की गई, क्योंकि हमेशा राजनीति इसके बीच दीवार बनकर खड़ी होती रही है। अब जब 24 सितंबर को उच्च न्यायालय मंदिर मुद्दे पर फैसला सुनाने जा रहा है तो स्वाभाविक है कि पूरे देशवासियों की नजर जहां आने वाले फैसले पर टिकी है, वहीं अयोध्या पूरी तरह से शांत दिखाई पड़ रही है। किन्तु यह भी सच है कि सरयू के ठहरे जल में कब ज्वार-भाटा आ जाए यह कहना मुश्किल है। शायद इसीलिए सरकार पूरी अयोध्या को छावनी बनाकर सुरक्षा व्यवस्था सुदृढ़ करने में लगी है।’

अयोध्या में तपिश बढ़ती है तो पूरे देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच एक विभाजन रेखा खींचने की कोशिश की जाती है। इस बार अयोध्या में किसी दल विशेष का आयोजन नहीं है। बल्कि 60 दशक बाद न्यायालय का फैसला आने जा रहा है तब भी राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों ने साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। महीनों पहले से जिस तरह दोनों पक्षों द्वारा एसएमएस करके अपने लोगों को सावधान करने का सिलसिला शुरू हुआ वह काफी चिंताजनक कहा जाएगा। चूंकि अयोध्या प्रकरण पूरी तरह आस्था से जुड़ा सवाल है जिससे आम जनमानस पर इसका गहरा प्रभाव होना स्वाभाविक भी है।
22 दिसंबर 1949 की रात में विवादित स्थल पर राम,लख्मण आदि की मूर्तियों को रखने और 23 दिसंबर को प्रकटीकरण के बाद उठे विवाद को देखते हुए प्रशासन ने ताला बंद कर दिया था, लेकिन मंदिर के पुजारी को पूजा आदि करने की छूट थी। विवादित स्थल से मूर्ति न हटाए जाने से दोनों पक्षों ने न्यायालय की शरण ली और अपने-अपने स्वामित्व का दावा किया। छ: दशक से चल रहे मुकदमें के फैसले की अब घड़ी आ गई है लेकिन यह फैसला मंदिर-मस्जिद विवाद को खत्म कर देगा ऐसा संभव नहीं दिखाई पड़ रहा है क्योंकि फैसला तो एक ही के पक्ष में रहेगा। ऐसे में दूसरा पक्ष सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा जरूर खटखटाएगा, फिर भी खुशी होगी कि इस संवेदनशील विवाद को हल करने में एक सार्थक कदम तो उठा।
24 सितंबर की तारीख को लेकर सरकारों के सिंहासन डोल रहे हैं। पर आम आदमी अब धर्म राजनीति की साम्प्रदायिक आंच से दूर रहकर अमन चैन की जिंदगी बसर करना चाहता है। खास करके उत्तर भारत के गांवों, कस्बों और शहरों में मंदिर मुद्दा अत्यंत संवेदनशील रहा है, जिससे एक तरफ विहिप के कार्यक्रमों से तो दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के आयोजनों से लोगों की नब्ज घटती-बढ़ती रही है। इसके चलते समाज में तनाव बढ़ता रहा और मेरठ, मुरादाबाद, अलीगढ़, गोण्डा, बहराइच सहित अनेक जिलों के दंगों की धमक दिल्ली तक पहुंचती रही, जिससे राजनीतिक पैंतरेबाजी भी उसी तरह होती रही। परंतु 1992 में विवादित ढांचा ध्वस्त होने के बाद जो स्थितियां बनीं उससे आम आदमी काफी आहत हुआ, वहीं राजनीतिज्ञों का असली चेहरा भी बेनकाब हो गया। रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे को लेकर सामाजिक ढांचा को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास तो खूब हुआ लेकिन विघटनकारी तत्वों को उसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि हमारा सामाजिक बंधन इतना मजबूत है कि आम जनमानस को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। हिंदू यदि ईद और मोहर्रम जैसे त्योहारों में शामिल होता है तो मुस्लिम भाई दुर्गा पूजा और दशहरा जैसे त्योहारों में कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं। यही कारण था कि अयोध्या विवाद आस्था से जुड़ा होने के बावजूद अधिकतर लोगों ने उसे नकार दिया। अगर ऐसा न होता तो कल्याण सरकार में ढांचा ध्वस्त होने के बाद भाजपा को खण्डित जनादेश न मिला होता, बल्कि उसे पूर्ण बहुमत मिली होती।

अयोध्या विवाद अनंतकाल तक टाला नहीं नहीं जा सकता था और ऐसा होना भी नहीं चाहिए था। 24 सितंबर को अदालत का फैसला आना है तो एक बार फिर मंदिर-मस्जिद का जिन्न बोतल से बाहर आने का प्रयास कर रहा है। जिससे आम जनमानस से ज्यादा सरकारें परेशान हैं। वह इसलिए नहीं कि आम आदमी से उन्हें कोई मोहब्बत है, बल्कि इसलिए कि आने वाले दिनों में चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में कोई भी पार्टी जोखिम उठाना नहीं जाहती है। आने वाले फैसले की जितनी चर्चा बाहर है उतनी अयोध्या में नहीं है। वहां पूर्व की भांति शांति है और लोग अपने दैनिक कार्यों में लगे हैं। किंतु आम आदमी पर प्रशासन की तैयारी का विपरीत असर जरूर पड़ रहा है। स्कूल कालेज बंद कर उसमें सुरक्षा बलों को ठहराया गया है। जिससे शिक्षा के मंदिर में संगीनों की चमक और बूंटों की धमक सुनाई पड़ रही है।

अयोध्या के पड़ोसी जिलों गोण्डा, बलरामपुर, बहराइच, श्रीवास्ती, सुल्तानपुर, बस्ती, बाराबंकी आदि में स्थिति से निपटने के लिए अस्थाई जेलों का निर्माण किया गया है। साथ ही व्यापक सुरक्षा प्रबंध भी किए गए हैं। प्रशासन दोनों समुदायों के प्रमुख लोगों की सूचियां बनाकर उन पर बराबर नजर रख रहा है। अयोध्या-फैजाबाद के अधिकतर होटल और धर्मशालाओं को प्रशासन ने अधिग्रहित कर लिया है। जिससे बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को ठहरने में काफी कठिनाइयां हो रही है। जिसका सीधा असर वहां के दुकानदारों पर पड़ रहा है क्योंकि अयोध्या में जितने पर्यटक आएंगे उतना ही लाभ दुकानदारों को होता है। सबसे ज्यादा असर छोटे दुकानदारों के ऊपर पड़ रहा है। दिनभर कमाने के बाद शाम को उनके घरों का चूल्हा जलता है। वह चाहे हिंदू हो या मुसलमान। अयोध्या में सरयू के घाट पूरी तरह सूने पड़े हैं। जबकि इस महीने में पिंडदान करने वालों की लाइनें लगी रहती थी, किंतु इस बार पूरी तरह से घाट सूने हैं। जिसके कारण कर्मकाण्डी पंडितों का व्यवसाय भी काफी धीमा पड़ गया है।

अदालती फैसला के बाद किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए प्रशासन जहां मुस्तैद है, वहीं सभी राजनीतिक दल व साधु-संतों तथा मुस्लिम धर्म गुरुओं द्वारा जिस तरह से शांति की अपील की जा रही वही समय की मांग है लेकिन इन अपीलों पर लोग कितना अमल करेंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिर भी फैसला आने के बाद सभी राजनीतिक लोगों और धर्मगुरुओं को भी समाज को एक सूत्र में बांधे रखने का प्रयास जारी रखना होगा। अन्यथा विघटनकारी तत्वों को अपना मकसद पूरा करने का एक मौका और मिल जाएगा।

अदालत का निर्णय कुछ भी हो, लेकिन जिस तरह विवादित स्थल का ताला खोला जाना, शिलान्यास कराना, दर्शन-पूजन की अनुमति देना और विवादित ढांचा ध्वस्त होने की तिथि मंदिर-मस्जिद आंदोलन के इतिहास में अंकित है उसी तरह से 24 सितंबर की तारीख भी मात्र कुछ घंटों बाद उसी इतिहास में अपना भी स्थान बना लेगी।

सोमवार, 7 जून 2010

कंपनियों का मुनाफा और हमारा विनाश


मुनाफा कमाने की होड़ में लगी राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुनाफा कमाने की होड़ के चलते हमारे देश की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की जैव विविधता खतरे में है। कई वनस्पतियां हमारे बीच से विलुप्त हो चुकी हैं। चिडिय़ा गौरेया, फाख्ता, गिद्ध, कौवे, गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन सहित कई प्रजाति की मछलियां, मेंढक, सांप आदि कल तक हम सबके जीवन का हिस्सा थे, लेकिन आज वे खोजने पर भी नहीं मिलते। नील गाय, मोर, गीदड़, सियार, रोही बिल्ली, पाटा गोह, उडऩे वाली गिलहरी, खनखजूरा, विभिन्न प्रकार के मेंढक अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। इसका कारण जैव विविधता वाले क्षेत्र यानी प्रकृति में पाये जाने वाले सूक्ष्मतम और विशालतम जीव जंतुओं के जीवन चक्र क्षेत्र में लगातार और अनियंत्रित रूप से बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप है। नदियों और समुद्रों में पाये जाने वाले जीव जंतु बड़े पैमाने पर शिकार और अनुकूल परिस्थितियां न रहने के कारण विनष्ट होते गये। खेती-बाड़ी में उपयोग होने वाले रासायनिक उवर्रकों के चलते प्रकृति के मित्र समझे जाने वाले कीट-पतंग या तो नष्ट हो गये या फिर उनकी प्रजननक्षमता कम हो गयी। नतीजा यह हुआ कि वे धीरे-धीरे हमारे बीच से विलुप्त हो गये, जब तक हमें पता लगता, मामला काफी गंभीर हो चुका था। मोबाइल टावरों, हवाई जहाजों से निकलने वाली तरंगों ने हमारी जैव विविधता को कम नुकसान नहीं पहुंचाया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पशु-पक्षियों के संरक्षण को लेकर सक्रिय संस्था आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन कंजरवेशन फार नेचर) की रिपोर्ट चौंकाती ही नहीं, प्रकृति प्रेमियों और पर्यावरणविदें डराती भी है। आईयूसीएन की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में पाए जाने वाले जीवों में से एक तिहाई विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह खतरा हर दिन बीतने के साथ बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट में किहांसी स्प्रे टोड के बारे में खास तौर पर चर्चा की गयी है जिसके मुताबिक मेंढक की यह प्रजाति इसलिए विलुप्त हो गयी क्योंकि जिस नदी में इनका निवास था, उस नदी के ऊपरी हिस्से पर बांध बना दिया गया। पानी के बहाव में कमी आने से ये मेंढक खत्म हो गये। ठीक ऐसा ही हमारे देश में भी हुआ। गंगा, यमुना, राप्ती और व्यास आदि नदियों और उसके किनारे रहने वाले जीव जंतु पानी कम होने की वजह से या तो नष्ट हो गये या भविष्य में नष्ट हो जायेंगे।
आईयूसीएन के रिपोर्ट के मुताबिक महासागरों की हालात काफी चिंताजनक है। रिपोर्ट से पता चलता है कि समुद्री प्रजातियों में से ज्यादातर जीव-जंतु अधिक मछली पकडऩे, जलवायु परिवर्तन, तटीय विकास और प्रदूषण की वजह से नुकसान का सामना कर रहे हैं. शार्क सहित कई समुद्री प्रजाति के जलीय जीव, छह-सात समुद्री प्रजातियों के कछुए विलुप्त होने के कगार पर हैं। चट्टान मूंगों की 845 प्रजातियों में से 27 प्रतिशत विलुप्त हो चुकी हैं, 20 प्रतिशत विलुप्त के निकट हैं। समुद्री पक्षियों पर खतरा कुछ अधिक है। स्थलीय पक्षियों के 11.8 प्रतिशत की तुलना में 27.5 प्रतिशत समुद्री पक्षियों पर विलुप्त होने के खतरा अधिक है। थार की पाटा गोह हो या फोग का पौधा, गंगा की डाल्फिन हो, हिमालय के ग्लेशियर हों या तंजानिया का का किहांसी स्प्रे मेंढक, सब पर खतरा मंडरा रहा है। भारत में 687 पौधे और इतने ही जीवों पर संकट के बादल गहराते जा रहे हैं।
आईयूसीएन की रेड लिस्ट बताती है कि 47,677 में से कुल 17,291 जीव प्रजातियां कब खत्म हो जायें, कहा नहीं जा सकता है। इसमें 22 प्रतिशत स्तनधारी जीव हैं, 30 प्रतिशत मेंढकों की प्रजातियां हैं, इसमें 70 प्रतिशत पौधे और 35 प्रतिशत सरीसृप जैसे जीव हैं। भारत में ही पौधे और वन्य जीवों की कुल 687 प्रजातियां लुप्त होने वाली हैं। इनमें 96 स्तनपायी, 67 पक्षी, 25 सरीसृप, 64 मछली और 217 पौधों की प्रजातियां हैं।
इन प्रजातियों पर सबसे बड़ा खतरा मुनाफा कमाने की होड़ में लगी देशी और विदेशी कंपनियों से है। जैव विविधता पर सबसे ज्यादा हमला करने वाली कंपनियां अमेरिका, रूस, चीन जैसी विकसित देशों की हैं। यही वजह है कि ये विकसित देश दुनिया भर के विकासशील देशों और उनमें बसे लोगों को आगाह कर रहे हैं कि जैव विविधता और ग्लोबल वार्मिंग के चलते इससे पृथ्वी पर एक भीषण खतरा मंडरा रहा है। बेमौसम बरसात, आंधी-पानी, बर्फबारी, भूकंप और ज्वालामुखी का सक्रिय होना, ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है। जैव विविधता पर बढ़ते संकट के चलते दुनिया भर में समुद्र, नदियों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले हजारों जीवों का संकट खतरे में हैं। जीव-जंतुओं की हजारों प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं, हजारों विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह बात भी सही है। मजेदार बात तो यह है कि इस बात को चीख वही लोग कह रहे हैं, जो जैव विविधता पर लगातार बढ़ रहे खतरे और ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी हैं। विकसित देश दुनियाभर में स्थापित अपनी कंपनियों के माध्यम से न तो जैव विविधता के दोहन पर रोक लगाने को और न ही ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारण कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन को कम करने को तैयार हैं। वे विकासशील देशों को प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम करने और कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन घटाने की घुड़की देते रहते हैं।
भारत में सरकार की लापरवाही और लोगों की अनभिज्ञता के चलते जैव विविधता पर खतरा कुछ ज्यादा ही मंडरा रहा है। सरकार के ढुलमुल रवैया का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित मन्नार की खाड़ी से करोड़ों रुपये का समुद्री शैवाल निर्यात करने वाली कंपनी पेप्सी राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के दबाव के चलते रायल्टी दे भी तो सिर्फ 38 लाख रुपये। अभी पिछले महीने पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने एक कार्यक्रम में बड़े गर्व से कहा था कि पेप्सी से हुए करार के तहत समुद्री शैवाल के निर्यात के लिए उससे 38 लाख रुपये की रायल्टी हासिल की गयी है। इस राशि को उस स्थानीय समुदाय के बीच वितरित किया जायेगा, जहां से पेप्सी कंपनी समुद्री शैवाल का निर्यात करती है। करोड़ों रुपये का सालाना कारोबार करने वाली कंपनी से सिर्फ 38 लाख रुपये की रायल्टी वसूल लेना वाकई काबिलेतारीफ है। पेप्सी जैसी विभिन्न कंपनियां जिस समुद्री शैवाल का सिंगापुर, मलेशिया और अन्य देशों में निर्यात करती हैं, उस शैवाल को भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित मन्नार की खाड़ी से निकाला जाता है। मन्नार की खाड़ी के आसपास रहने वालों के बीच जब यह रायल्टी (38 लाख रुपये) वितरित किये जायेंगे, तो स्थानीय समुदाय के लोगों को कितनी रकम प्राप्त होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इससे इनका कितना भला हो पायेगा, यह भी विचारणीय प्रश्न है।
अब दुनिया के 193 देशों के प्रतिनिधि आगामी अक्टूबर 2010 में जापान के नागोया शहर में जैव विविधता पर अंतरराष्ट्रीय संधि करने जा रहे हैं। इससे पहले विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति बनाने को जुलाई 2010 में कनाडा के मांट्रियाल में एक बैठक होगी। इन दोनों बैठकों में जो भी फैसले होंगे, उसके आधार पर नई दिल्ली में सन 2012 के अक्टूबर महीने में होने वाली कॉप-11 (कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज) की 11वीं बैठक में जैव विविधता पर अंतरराष्ट्रीय संधि होगी जिसका पालन करने को सभी वार्ताकार बाध्य होंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि दिल्ली में होने वाली कॉप-11 की बैठक का नतीजा वही तो नहीं होगा जो अभी कुछ महीने पहले ग्लोबल वार्मिंग को लेकर कोपेनहेगन में होने वाली बैठक का हुआ था। अपने-अपने हितों की सुरक्षा को लेकर अड़े विकसित देशों के अडिय़ल रवैये के चलते कोपेनहेगन में होने वाली यह बैठक सफल नहीं हो पायी थी।