शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

घूंघट की ओट से कब तक चलेंगी पंचायतें!


प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के विभिन्न पदों पर 760577 सदस्यों का चुनाव होना है जिसमें ढाई लाख से अधिक महिलाएं इसमें भाग लेंगी। ये अपना भाग्य आजमायेंगी। (न्यायालय के स्थगनादेश से दो जिलों एटाऔर कांशीराम नगर में चुनाव नहीं कराए जा रहे हैं।) लेकिन पूरे प्रदेश में दस प्रतिशत से अधिक महिलाओं के हाथों में चुनाव प्रचार की बागडोर भी नहीं है। इनके चुनाव प्रचार का भी जिम्मा इनके पिता, पति, भाई, पुत्र या दूसरे परिजनों ने ले रखा है। कहां वोट मांगने जाना है, इसका भी निर्धारण इनके परिवार के पुरुष करते हैं।

आगरा के वार्ड संख्या 17 से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव श्रीमती निर्मला देवी लड़ रही हैं, लेकिन प्रतिष्ठा इनके पति राजवीर सिंह प्रधान की लगी हुई है। क्योंकि पूरा इलाका इनके पति को ही जानता है। निर्मला देवी की पहचान अपने पति से है। फतेहपुर सीकरी से जिला पंचायत सदस्य का ही चुनाव श्रीमती पिस्ता देवी भी लड़ रही हैं और यहां भी चुनावी प्रतिष्ठा इनके पति चौधरी घन्सू सिंह सरपंच की लगी है। यह एक छोटी सी नजीर है, जो पूरे प्रदेश में हर जगह लगभग ऐसा ही देखने को मिल रहा है। पंचायत चुनाव में महिला प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार की बागडोर कहीं पति, तो कहीं ससुर, भाई या देवर के हाथों में है। मीरा ने ‘घूंघट के पट खोल, तुझे पिया मिलेंगे’ गीत के माध्यम से सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने का आह्वान किया था, लेकिन दुर्भाग्य है कि आज जब संविधान ने महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे रखा है। उनके लिए पंचायत चुनाव में 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं, तब भी घूंघट की ओट से ही पंचायतें चलाई जा रही हैं। बराबरी का संदेश इन महिलाओं तक नहीं पहुंचा है। वे आज भी सामंती व्यवस्था के तहत जी रही हैं या फिर जीने को मजबूर की जा रही हैं। ऐसा भी नहीं है कि सभी महिलाएं घूंघट में ही रहकर पंचायतों को संभाल रही हैं या वर्तमान चुनाव में प्रचार के लिए निकलती ही न हों। अपवाद हर जगह मौजूद होते हैं। इस मामले में कुछ महिला प्रत्याशी अपवाद हैं। आगरा के ही वार्ड नंबर तीन से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ रही श्रीमती ममता त्यागी ने चुनाव प्रचार की बागडोर संभाल रखी है। इतना ही नहीं, वे दूरदराज के गांवों में भी पहुंच रही हैं।

प्रदेश में ही भारत-नेपाल सीमा पर बसा फकीरपुरी गांव अनुसूचित जनजाति बाहुल्य (थारू जनजाति) है जहां ये लोग आदिवासी संस्कृति में खानाबदोश जैसी जिंदगी जी रहे हैं। उन्हीं लोगों के बीच से माधुरी ने घर की चौखट से बाहर कदम रखा और स्रातक तक शिक्षा ग्रहण कर 2005 के चुनाव में प्रधानी का चुनाव लड़कर प्रधान बन गईं। कम उम्र की एक लड़की जब प्रधान बनी, तो सपने में भी लोगों ने नहीं सोचा था कि यह भी कुछ कर पाएगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि आज फकीरपुरी गांव की एक भी लड़की ऐसी नहीं है जिसका नाम प्राथमिक विद्यालय में न दर्ज हो। इतना ही नहीं, गांव की महिलाओं को वह खुद पढ़ाती है, ब्लाक तथा एनजीओ के माध्यम से गांव का कायाकल्प ही कर दिया है। इससे वहां के लोगों का रहन-सहन ही बदल गया है। अब वे कई तरह की बुराइयों से दूर हैं।

ऐसा ही हाल जनपद बहराइच के ग्राम जैतापुर का है। यहां से एक वेश्या ने पिछली बार चुनाव जीता और गांव के विकास के साथ ही वेश्याओं को पुस्तैनी धंधे से अलग कर उन्हें दूसरे धंधों से जोड़ा। उन्हें सम्मानजनक ढंग से जीना सिखाया। हालांकि ऐसी मिसालें बहुत कम हैं, वरना 99 प्रतिशत महिला पंचायत प्रतिनिधियों के कामकाज उनके ससुर , पति, देवर, भाई या पुत्र ही देखते हैं। यहां तक कि ब्लाकों में होने वाली जरूरी बैठकों में भी महिलाओं के प्रतिनिधि के रूप में उनके घर के पुरुष ही उपस्थित होते हैं। पंचायतों को मुट्ठी में जकड़े रहने वालों में पीढ़ी दर पीढ़ी राजनीतिक रुतबा बनाए रखने की कोशिश में जुटे लोग ही नहीं हैं बल्कि कानून तथा संविधान की मंशा-मर्यादा से वाकिफ लोग भी हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि पंचायतों में 33 प्रतिशत महिलाओं के आरक्षण का आखिर क्या महत्व है? वहीं एक यक्ष प्रश्न यह भी गूंज रहा है कि घूंघट की ओट से कब तक पंचायतें चलेंगी। जिसका उत्तर खोज पाना शायद आसान नहीं है।
राम आशीष गोस्वामी

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